बेटों वाली विधवा मुंशी प्रेम चंद
2)
कामतानाथ को इसकी कोई ज़रूरत न मालूम हुई। बोले- 'उनकी तो जैसे बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी। वही पुराने युग की बातें! मुरारीलाल के नाम पर उधार खाये बैठी हैं। यह नहीं समझतीं कि वह ज़माना नहीं रहा। उनको तो बस, कुमुद मुरारी पंडित के घर जाये, चाहे हम लोग तबाह हो जायें।'
उमा ने एक शंका उपस्थित की- 'अम्माँ अपने सब गहने कुमुद को दे देंगी, देख लीजिएगा।'
कामतानाथ का स्वार्थ नीति से विद्रोह न कर सका। बोले- 'गहनों पर उनका पूरा अधिकार है। यह उनका स्त्रीधन है। जिसे चाहें, दे सकती हैं।'
उमा ने कहा- 'स्त्रीधन है तो क्या वह उसे लुटा देंगी। आख़िर वह भी तो दादा ही की कमाई है।'
‘किसी की कमाई हो। स्त्रीधन पर उनका पूरा अधिकार है!’
‘यह क़ानूनी गोरखधंधे हैं। बीस हज़ार में तो चार हिस्सेदार हों और दस हज़ार के गहने अम्माँ के पास रह जायें। देख लेना, इन्हीं के बल पर वह कुमुद का विवाह मुरारी पंडित के घर करेंगी।‘
उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकता। वह कपट-नीति में कुशल है। कोई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले लेगा। उस वक्त तक कुमुद के विवाह की चर्चा करके फूलमती को भड़काना उचित नहीं। कामतानाथ ने सिर हिलाकर कहा- 'भाई, मैं इन चालों को पसंद नहीं करता।'
उमानाथ ने खिसियाकर कहा- 'गहने दस हज़ार से कम के न होंगे।'
कामता अविचलित स्वर में बोले- 'कितने ही के हों; मैं अनीति में हाथ नहीं डालना चाहता।'
‘तो आप अलग बैठिए। हाँ, बीच में भांजी न मारिएगा।‘
‘मैं अलग रहूँगा।‘
‘और तुम सीता?’
‘अलग रहूँगा।‘
लेकिन जब दयानाथ से यही प्रश्न किया गया, तो वह उमानाथ से सहयोग करने को तैयार हो गया। दस हज़ार में ढ़ाई हज़ार तो उसके होंगे ही। इतनी बड़ी रकम के लिए यदि कुछ कौशल भी करना पड़े तो क्षम्य है।